उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के तहत लिव-इन संबंधों के अनिवार्य पंजीकरण की शर्त लागू होने के बाद से समाज में नई बहस छिड़ गई है। कुछ लोग इसे सकारात्मक बदलाव मानते हैं, जबकि अन्य इसे निजी जीवन में हस्तक्षेप करार दे रहे हैं। नैनीताल हाईकोर्ट ने इस मुद्दे पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि दो लोग खुले तौर पर साथ रह रहे हैं, तो फिर गोपनीयता के उल्लंघन का सवाल नहीं उठता।
सामाजिक मूल्यों पर प्रभाव
भारतीय समाज में विवाह को एक पवित्र बंधन माना जाता है। लिव-इन संबंधों को अभी भी कई हिस्सों में स्वीकृति नहीं मिली है। ऐसे में, सरकार का यह कदम विवाह के बिना संबंधों को सामाजिक रूप से स्वीकार्य बनाने की दिशा में एक कदम हो सकता है।
हालांकि, कई परंपरावादी समूहों का मानना है कि यह कानून सामाजिक ढांचे को कमजोर कर सकता है। उनका तर्क है कि यदि लिव-इन संबंधों को कानूनी मान्यता दी जाती है, तो इससे विवाह की संस्था कमजोर हो सकती है।
महिला सशक्तिकरण और कानूनी अधिकार
इस कानून का समर्थन करने वालों का कहना है कि इससे महिलाओं को सुरक्षा मिलेगी। कई मामलों में पुरुष लिव-इन संबंधों के बाद अपनी साथी को छोड़ देते हैं, जिससे महिलाओं को आर्थिक और सामाजिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
इस कानून से यह सुनिश्चित किया जाएगा कि किसी भी पक्ष के साथ अन्याय न हो और महिलाओं को उनके कानूनी अधिकार मिलें।
विरोध और चुनौतियां
विरोध करने वालों का कहना है कि यह प्रावधान व्यक्तिगत मामलों में राज्य के अनावश्यक हस्तक्षेप का उदाहरण है। वे इसे एक ऐसे कदम के रूप में देखते हैं जो लोगों की स्वतंत्रता को सीमित करता है और उनकी निजी जिंदगी को अनावश्यक रूप से सरकार के अधीन लाता है।
इसके अलावा, कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह कानून LGBTQ+ समुदाय के लिए भी बाधाएं खड़ी कर सकता है, क्योंकि भारत में समलैंगिक विवाह को अभी कानूनी मान्यता नहीं मिली है।
यूसीसी के तहत लिव-इन संबंधों के पंजीकरण को लेकर जो बहस चल रही है, वह कानूनी, सामाजिक और नैतिक पहलुओं से जुड़ी हुई है। सरकार का उद्देश्य इसे पारदर्शिता और सुरक्षा का एक साधन बनाना है, जबकि विरोधियों का मानना है कि यह एक अनावश्यक बाध्यता है।
अंततः, यह मामला अदालत में लंबित है और इसकी अगली सुनवाई अप्रैल में होगी। यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या अदालत इस कानून को बरकरार रखती है या इसमें बदलाव की सिफारिश करती है।
